100 . अभिन्न हृदय : वैशाली की नगरवधू
उसी शिलाखण्ड पर गहन - तिमिराच्छन्न नीलाकाश में हीरे की भांति चमकते हुए तारों की परछाईं में दोनों प्रेमी हृदय एक - दूसरे को आप्यायित कर रहे थे। युवक शिला का ढासना लगाए बैठा था और अम्बपाली उसकी गोद में सिर रखकर लेटी हुई थी ।
अम्बपाली ने कहा - “ प्रिय , क्या भोग ही प्रेम का पुरस्कार नहीं है ? ”
“ नहीं प्रिये, भोग तो वासना का यत्किंचित् प्रतिकार है। ”
“ और वासना ? क्या वासना प्रेम का पुष्प नहीं ? ”
“ नहीं प्रिये , वासना क्षुद्र इन्द्रियों का नगण्य विकार है। ”
“ परन्तु प्रिय , इस वासना और भोग ने तो विश्व की सम्पदाओं को भी जीत लिया है। ”
“ विश्व की सम्पदाएं भी तो प्रिये, भोग का ही भोग हैं । ”
“ जब विश्व की सम्पदाएं भोग और वासनाओं को अर्पण कर दी गईं, तब प्रेम के लिए क्या रह गया ? ”
“ आनन्द ! ”
“ कौन- सा आनन्द प्रिय ? ”
“ जो इन्द्रिय के भोगों से पृथक् और मन की वासना से दूर है; जिसमें आकांक्षा भी नहीं, उसकी पूर्ति का प्रयास भी नहीं और पूर्ति होने पर विरक्ति भी नहीं, जैसी कि भोगों में और वासना में है। ”
“ परन्तु प्रिय , शरीर में तो वासना - ही - वासना है और भोग ही उसे सार्थक करते हैं
“ इसी से तो प्रेम के शैशव ही में शरीर भोगों में व्यय हो जाता है, प्रेम का स्वाद उसे मिल कहां पाता है ? प्रेम को विकसित होने को समय ही कहां मिलता है ! ”
“ तब तो .... ”
“ हां - हां प्रिये , यह मानव का परम दुर्भाग्य है, क्योंकि प्रेम तो विश्व - प्राणियों में उसे ही प्राप्त है , भोग और वासना तो पशु - पक्षियों में भी है पर मनुष्य पशु-भाव से तनिक भी तो आगे नहीं बढ़ पाता है। ”
“ तब तो प्रिय , यौवन और सौन्दर्य कुछ रहे ही नहीं। ”
“ क्यों नहीं , मनुष्य का हृदय तो कला का उद्गम है। यौवन और सौंदर्य - ये दो ही तो कला के मूलाधार हैं । विश्व की सारी ही कलाएं इसी में से उद्भासित हुई हैं प्रिये ; इसी से , यदि कोई यथार्थ पौरुषवान् पुरुष हो और यौवन और सौन्दर्य को वासना और भोगों की लपटों में झुलसने से बचा सके , तो उसे प्रेम का रस चखने को मिल सकता है । प्रिये, देवी अम्बपाली , वह रस अमोघ है । वह आनन्द का स्रोत है, वर्णनातीत है। उसमें आकांक्षा नहीं , वैसे ही तप्ति भी नहीं, इसी प्रकार विरक्ति भी नहीं। वह तो जैसे जीवन है, अनन्त प्रवाहयुक्त शाश्वत जीवन , अतिमधुर , अतिरम्य , अतिमनोरम ! जो कोई उसे पा लेता है उसका जीवन धन्य हो जाता है। ”
अम्बपाली ने दोनों मृणाल - भुज युवक के कण्ठ में डालकर कहा - “ प्रियतम, मैंने उसे पा लिया। ”
“ तो तुम निहाल हो गईं प्रिये, प्राणाधिके ! ”
“ मैं निहाल हो गई, निहाल हो गई , अपना सुख, अपना आनन्द मैं कैसे तुम्हें बताऊं ? ”उन्होंने आनन्द-विह्वल होकर कहा ।
“ आवश्यकता नहीं प्रिये ! प्रेम की अथाह धारा में प्रेम की मन्दाकिनी मिल गई है , तुम्हारे अवर्णनीय आनन्द की अनुभूति मैं अपने रक्त - प्रवाह में कर रहा हूं। ”
युवक ने धीरे से नीचे झुककर अम्बपाली के प्रफुल्ल होंठों का चुम्बन लिया । अम्बपाली ने भी चुम्बन का प्रत्युत्तर देकर युवक के वक्षस्थल में अपना मुंह छिपा लिया ।
कुछ देर बाद युवक ने कहा
“ मौन कैसे हो गई प्रिये ? ”
“ कुछ कहने को तो रहा ही नहीं अब। ”
“ सब - कुछ जान गईं ? ”
“ सब- कुछ! ”
“ सब- कुछ समझ गईं ? ”
“ सब - कुछ। ”
“ तुम धन्य हुईं प्रिये , तुम अमर हो गईं!
युवक ने धीरे से अम्बपाली को अपने बाहपाश से मुक्त करके कहा
“ तो अब विदा प्रिये, कल के सुप्रभात तक । ”
अम्बपाली का मुख सूख गया । उसने कहा
“ तुम कहां सोओगे ? ”
“ सामने अनेक गुफाएं हैं, किसी एक में । ”
“ किन्तु .... ”
“ किन्तु नहीं प्रिये ! ”युवक ने हंसकर एक बार अम्बपाली के होंठों पर और एक चुम्बन अंकित किया और भारी बर्छा कंधे पर रख, कंधे का वस्त्र ठीक कर , अंधकार में विलीन हो गया ।
अम्बपाली, देवी अम्बपाली उस भूमि पर जहां अभी -अभी युवक के चरण पड़े थे, अपना वक्ष रगड़ -रगड़कर आनन्द - विह्वल हो आंसुओं की गंगा बहाने लगीं ।